माँची सीहरा मीणा वंश
वर्तमान जयपुर से 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित माँची (या माँच),माँची क्षेत्र सीहरा मीणा वंश के अधीन था, और
राव नाथू इसके सबसे प्रमुख शासक माने जाते हैं।
मीणा समुदाय राजस्थान का एक प्राचीन आदिवासी समुदाय है, जो अपने लोकतांत्रिक शासन और जनजातीय परंपराओं के लिए जाना जाता था।
मीणा राजाओं का शासन एक स्वतंत्र और स्वायत्त प्रणाली पर आधारित था, जहाँ समुदाय के लोग सामूहिक रूप से निर्णय लेते थे और संसाधनों का प्रबंधन करते थे। यह प्रणाली अन्य राजतंत्रीय राज्यों से अलग थी, जहाँ शक्तियाँ एक राजा या राजवंश तक सीमित होती थीं।
माँची का स्थान और इसकी मजबूत किलेबंदी ने इसे एक रणनीतिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण बना दिया। यह क्षेत्र समृद्ध था और इसकी शक्ति दूर-दूर तक मानी जाती थी। माँची का यह महत्त्व जल्द ही
कछवाहा राजपूत योद्धा दुल्हाराय की नजर में आया, जो इस क्षेत्र को अपने राज्य का हिस्सा बनाना चाहता था और
दुल्हाराय का परिचय हम पूर्व अध्याय खोहगंग के इतिहास में पढ़ चुके है |
जमवारामगढ़ मीनाओं का इतिहास |
खोहगंग विजय के बाद माँची पर आक्रमण किया। उस समय
राव नाथू इस क्षेत्र के शासक थे। यह आक्रमण अचानक हुआ, जिससे
मीणा साम्राज्य की ताकत का अंत प्रारंभ हुआ।
दुल्हाराय ने माँची पर विजय प्राप्त कर इसका नाम बदलकर "रामगढ़" रखा, और यहाँ अपनी कुलदेवी जमुवा माता का मंदिर बनवाया, जो आज भी "जमवारामगढ़" के नाम से विख्यात है।
चारण रामनाथ रतन के अनुसार,
मीणा साम्राज्य पर यह हमला तब हुआ जब मीणा गणगौर के पर्व पर एकत्रित थे। अचानक हुए इस हमले से मीणा समुदाय तैयार नहीं था, लेकिन पहले आक्रमण में मीणाओं ने कछवाहों को हरा दिया। इसके बावजूद, दुल्हाराय ने इस असावधानी का लाभ उठाकर मीणाओं पर पुनः आक्रमण किया उस वक्त समुदाय जीत का जश्नन मदिरा पान कर के मना रहे थे तो मौका का फायदा उठा के उन्हें पराजित कर दिया और माँची पर कब्जा कर लिया।
राव नाथू की वीरगति के बाद, उनके पुत्र राव मेदा ने मीणा समुदाय को संगठित करने का बीड़ा उठाया। राव मेदा एक वीर योद्धा और ओजस्वी वक्ता थे। उन्होंने जमवारामगढ़ के पास
जंरूडा घाटी में मीणा सरदारों को संबोधित करते हुए एक प्रेरणादायक भाषण दिया, जिसमें उन्होंने मीणा जाति को अपने अधिकारों और जन्मभूमि की रक्षा के लिए संघर्ष करने का आह्वान किया।
राव मेदा ने अपने भाषण में कहा:
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जनरेटेड जमवारामगढ़ किला |
"भाइयों, प्राणीमात्र को अपनी जन्मभूमि स्वर्ग से भी प्यारी होती है। मनुष्य का धर्म है कि वह किसी दूसरे का अधिकार न छीने। यह मच्छ्य देश हमारा है और हमें इसकी रक्षा करनी है। राजा का काम प्रजा की सेवा करना है, न कि अत्याचार करना।"
राव मेदा के इस ओजस्वी संबोधन ने मीणा सरदारों को प्रेरित किया, और उन्होंने माँची पर अपना राज्य पुनः स्थापित करने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने ग्यारह हजार मीणा सैनिकों को संगठित कर युद्ध की तैयारी की और अपने शत्रुओं से लोहा लिया।
राव मेदा ने अपनी मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए साहसिक प्रयास किया। मीणाओं ने दुश्मनों से संघर्ष करते हुए माँची पर पुनः अधिकार प्राप्त किया। राव मेदा की वीरता और नेतृत्व के कारण मीणाओं ने एक बार फिर से अपना राज्य स्थापित किया। एक कवि ने राव मेदा की वीरता का गुणगान करते हुए कहा:
"धन्य वीर मेधा तुमको, धन्य तुम्हारे पितु अरू माय।
अशरण शरण धर्म प्रतिपालक, धर्म ध्वजा जग में फहराय।"
राव मेदा का आदर्श चरित्र और उनकी निस्वार्थ सेवा मीणा जाति के लिए प्रेरणा बनी। उन्होंने अपने राज्य का लोभ छोड़कर मीणा समुदाय की एकता के लिए काम किया। उन्होंने माँची के नरसंहार से बचे मीणाओं को संगठित कर उनके भीतर साहस का संचार किया।
राव मेदा की विजय के बाद, मीणा समुदाय में एकता की कमी और स्वेच्छाचारिता बढ़ने लगी। इस स्थिति का लाभ दुल्हाराय के पुत्र कांकिल ने उठाया। उसने चौहान राजा वीर्यराम की मदद से माँची पर फिर से अधिकार कर लिया। इस दौरान राव मेदा ने वीरता से संघर्ष किया, लेकिन अंततः मातृभूमि की रक्षा करते हुए वीरगति को प्राप्त हुए।
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