समाज की रानी लक्ष्मीबाई 👉वीर बाला कालीबाई एक अदम्य साहस की गाथा
कालीबाई की कहानी न केवल साहस और बलिदान की एक मिसाल है, बल्कि यह शिक्षा और अधिकारों की लड़ाई का प्रतीक भी है। उनकी अदम्य भावना और निस्वार्थ बलिदान ने उन्हें भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के अद्वितीय नायकों में शामिल कर दिया है। उनकी गाथा आज भी हमें प्रेरित करती है कि हम अन्याय के खिलाफ खड़े हों और अपने अधिकारों के लिए लड़ें।
राजस्थान के
डूंगरपुर जिले के रास्तापाल गाँव में, जून 1935 में जन्मी एक वीर बालिका ने अपने साहस और बलिदान से इतिहास को बदल दिया।
कालीबाई, जो एक
आदिवासी समुदाय से थीं, का नाम आज भी लोगों की जुबान पर है। यह कहानी उस समय की है जब राजस्थान में अनेक रियासतें थीं और वहाँ के जमींदार अंग्रेजों के साथ मिलकर शासन कर रहे थे।
रास्तापाल में एक सेवा संघ द्वारा एक पाठशाला खोली गई, जिसमें भील और मीणा समुदाय के बच्चों को शिक्षा दी जा रही थी। यह विद्यालय गाँव के नानाभाई खांट के घर पर चल रहा था। लेकिन रियासत के शासक, महारावल लक्ष्मणसिंह, को यह बात अच्छी नहीं लगी। उन्होंने सोचा कि अगर ये बच्चे शिक्षित हो गए, तो वे अपनी स्थिति को समझेंगे और अधिकार मांगेंगे। इसलिए, उन्होंने पाठशाला बंद करने का आदेश दे दिया।
19 जून 1947 को, पुलिस और सैनिकों का एक दल पाठशाला को बंद करने के लिए रास्तापाल पहुँचा। नानाभाई खांट और उनके सहायक सेंगाभाई को हिरासत में लिया गया और उन्हें ट्रक के पीछे रस्सी से बाँधकर घसीटा जाने लगा। यह दृश्य देखकर गाँव में हड़कंप मच गया। आदिवासी समुदाय के लोग एकत्रित होने लगे और अपने गुरूजी को बचाने का निश्चय किया।
इसी बीच, कालीबाई जंगल से अपने पशुओं के लिए चारा लेकर लौट रही थीं। जब उन्होंने अपने गुरूजी की दुर्दशा देखी, तो उनका हृदय क्रोध से भर गया। उन्होंने साहसिकता से पुलिस अधिकारियों से पूछा कि इनको क्यों पकड़ा गया। पुलिस ने जब बताया कि ये विद्यालय चलाने के कारण गिरफ्तार हो रहे हैं, तो कालीबाई ने निर्भीकता से कहा, "विद्यालय चलाना कोई अपराध नहीं है।"
जब पुलिस ने कहा कि उन्हें गोली मार दी जाएगी, तो कालीबाई ने बिना हिचकिचाते उत्तर दिया, "तो सबसे पहले मुझे गोली मारो!"
इस संवाद ने गाँववालों को उत्साहित किया और उन्होंने महारावल के खिलाफ नारे लगाना शुरू कर दिया। लेकिन पुलिस ने स्थिति को काबू में करने के लिए ट्रक चलाने का आदेश दिया। कालीबाई ने साहसिकता से पुलिस की बंदूकें अनदेखा करते हुए अपने गुरूजी को बचाने का निश्चय किया। उन्होंने पुलिस के पास पहुँचकर सेंगाभाई की रस्सी काटने का प्रयास किया।
जब पुलिस ने कालीबाई पर गोलियाँ चलाईं, तो वह शहीद हो गई। उनकी बलिदान ने आदिवासी समुदाय में नई चेतना जागृत की और वे पुलिस पर आक्रमण करने के लिए एकत्रित हो गए। कालीबाई की शहादत ने उस दिन के इतिहास को बदल दिया।
विरासत और स्मृति
कालीबाई की वीरता को आज भी याद किया जाता है। उनकी स्मृति में डूंगरपुर जिले में एक पार्क और प्रतिमा स्थापित की गई है। हर साल 19 जून को रास्तापाल गाँव में मेले का आयोजन किया जाता है, जहाँ लोग उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।
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